Monday, February 1, 2021

गुरू अमरदास जी

तपस्वी गुरू अमरदास जी 

तपस्वीगुरू अमरदास जी - बाबा गुरू घासीदास जी के वंषज उत्तराधिकारी ,गुरू गद्वीनसीन सतनाम पंथ /सतनामी समाज भारत वर्ष

जीवन परिचय - संतषिरोमणी गुरू बाबा घासीदास जी व सफुरामाता की गोद में जेष्ठ पुत्र गुरू अमरदास जी का अवतरण जुलाई 1794 को गुरू पुर्णिमा के दिन पावन गांव गिरौदपुरी में हुआ। गुरू अमरदास जी निर्गुण लक्षण प्रभाव गुणो के धनी थे, वे अपने पिता के समान ही तन मन व वचन से परोपकारी सतधारी जीवन व कार्यो से समुचे संसार को सतनाम का बोध कराया। गुरू अमर दास जी अचेतन समाज में चेतना जगाकर मानवता को समानता का अधिकार व अहिंसा पूर्वक कर्तव्यो का पालन करना सिखलाया। गुरू अमर दास जी अपने ज्ञान उपदेशो में सतनाम पंथ में उॅच्च-निच,छुत-अछुत अमीर-गरीब,काले-गोरे के भेदभाव से परे सभी मानव जीति को प्रत्यक्ष और प्रमाणित संदेश से मोहग्रस्त जीवों का अंधकार दुर किया करते थे।

बाल्यकाल से ही वैराग्य के गुण - गुरू अमरदास जी के वैराग्य रूप के लक्षण बाल्यकाल में संत जनों को देखने मिल गया था, गुरू अमरदास जी सात वर्ष की अवस्था में सतपुरूष का ध्यान कर अनुभवी ज्ञान के उपदेश को देखकर उसके तपस्या प्रभाव,निर्भयता से संतजनों को ज्ञात हो गया था कि गुरू अमरदास जी अपने सिद्वांत,विचार एवं उद्वेश्य को लेकर अपने पिता के सत मार्ग को आगे की ओर ले जाने की संकल्प ले लिया है। वे मात्र सात साल के आयु में ही समझदार व आत्म निर्भर हो गया था। गुरू अमरदास जी का एकांत व अज्ञातवास - गुरू अमरदास जी सन् 1800 को सात वर्ष के आयु में ही अपने माता पिता से मानव कल्याण के लिए तपस्या व अघ्यात्मिक सतमार्ग को स्थापित करनें एकांत शांत स्थल पर अज्ञातवास रहने की अनुमति पाकर गिरौदपुरी के घने जंगल अमरगुफा बाघमाड़ा के अंदर में जहा सर्प बिच्छू विशैले जीव व घोर अंधकार बाहर जंगल के वन्य प्राणियो के बीच सतनाम सतपुरूष साहेब की असीम कृपा व पिता संतशिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी की आर्शिवाद से वह अमरगुफा बाघमाड़ा जहा लोभ,मोह,छल,कपट व ईष्र्या प्राणी नही जा सकते वहां सात वर्षीय बालक गुरू अमरदास जी अपनें तन मन को तपाने अनिश्चित काल तक अज्ञातवास में रह कर तपस्या में लीन रहे।

सतपुरूष दर्शन व सतज्ञान/अमृत की प्राप्ति - बाल ब्रम्हचारी गुरू अमरदास जी द्वारा 12 वर्श तक कठोर तपस्या किया,तब सतपुरूश साक्षात् दर्शन देकर अपने अंश अवतार को उनके मानव जीवन की उद्वेश्य से अवगत कराते हुए कहा कि आपका अवतरण जगत के संतों को जन्म, मरण, सुख,दुख,लाभ,हानि,संयोग,वियोग,शुभ,अशुभ,गुण,अवगुण,प्रकाश, अंधेरा के भ्रम जाल से मुक्त कराकर उन्हे सतनाम के शक्ति जो संसार के कण कण व सभी सजीव निर्जिव में समान रूप समाहित है,सत से कोई भिन्न नही हो सकता संसार के मूल कारण सतनाम है और सत से ही जगत का सृजन हुआ है,सतनाम ही जीवनचक्र के मुक्ति का मार्ग है। गुरू अमरदास आपके आत्मज्ञान, विश्वास और संयम ये तीनो अपार शक्ति है जो तीनो काल में सतनाम के प्रति समर्पण आपके भीतर उत्तम गुण है,उन्हे बाहर निकाल कर संतो को उपदेश देकर सतनाम को संसार में प्रकाशमान कर सत्य, अहिंसा,दया,पे्रम,करूणा,पवित्र,समानता,स्वतंत्रता व मानवता को स्थापित करना है। संसार के रंगमंच में हर व्यक्ति की अलग भूमिका है,जहा व्यकित प्रतिकुल परिस्थितियों को स्वानुकुल बनाकर संभावित चिंता व कष्ट से स्वंय को बचाता है,सृष्टि में मानव सर्वोत्कृष्ट रचना है,यदि जीवन के सत्य को जानना है तो स्ंवय को जानना होगा,आज नैतिकता व मानवता का ह्नास हो रहा है। सामाजिक विसंगतियों, विकृतियों और स्वार्थो के चलते मानवीय संबंधो में कटुता बढ़ती जा रही है ऐसे में लोगो के विचारो में परिवर्तन कर नैतिकता,सिद्वांतों और आदर्शो की उपदेश से आपसी सौहार्द्र,भाईचारा और प्रेम व्यवहार जीवन को सहज बनाकर सतपुरूष की कृपा से सुख, शांति व समृद्वि मिलेगी। परिवर्तन ही प्रकृति का स्वभाव है व जीवन सतत गतिशील है अपनें विचारों व आचरण में सतनाम के नियमों का पालन कर जीवों के मन हृदय और आत्मा को सभी प्रकार के बंधनो से मुक्त कराने की अपेक्षा कर सतपुरूश गुरू अमरदास जी को जगतकल्याण हेतु अमृत कलश देकर कर उनका सद्उपयोग करने का आर्शिवचन प्रदान कर अर्तध्यान हो गया।

गुरू अमरदास जी का एकांत,अज्ञातवास से लौटना - कठिन तप से सतपुरूष के दर्शन व सतज्ञान के प्राप्ति के बाद सतनाम के अलौकिक शक्ति से युक्त सन् 1811 को कुशलता पुर्वक त्यागमुर्ति बालब्रम्हचारी गुरू अमरदास जी माता पिता को दर्शन देने हेतु आया। 12 वर्षो के पश्चात सतधारी तपसीगुरू अपने माता पिता को सत्य प्रमाण सहित पुत्र होने का चरित्र गाथा सुनाया। पुत्र को परखने सफुरामाता द्वारा एक परीक्षा गोरसदान मुखपान (सफेद नये वस्त्र के लोच लगाकर परदा आड़ से अपना गोरस निकाला जो सतपुरूष के कृपा से तपसीगुरू अमरदास जी के मुख में चला गया ) लिया जैसे ही गुरू अमरदास जी माता के परीक्षा में पास हुआ। सफुरामाता उन्हे हृदय से लगाया व गुरू बालकदास जी अपने बड़े भाई का आर्शिवाद लिया। इसके बाद सत्य के कसौटी में सफल हुए तपस्वी गुरू अमरदास जी को संतजनों के द्वारा गुरूकुल के रितिनुसार नारियल धोती भेटकर पुष्पमाला पहिनाकर सुंदर आसन में बैठाया जहा चरण धोकर आशिष लेते हुए भेट निछावर किया गया उसके बाद गुरू परिवार की संयुक्त दर्शन आर्शिवचन दिया जहां भण्डारपुरी के अलावा अन्य ग्रामवासीयो की भीड़ गुरूदर्शन मेंला में परिवर्तन हो गया जहां तपस्वी गुरू अमरदास जी के प्रथम उपदेश सतनाम के महिमा से परिचित हुए।

गुरू अमरदास जी का वैवाहिक जीवन - गुरू अमरदास जी का विवाह सन् 1822 को प्रतापपुर के अवतारी देव कन्या अंगारमती ऊर्फ देवकी ऊर्फ रूखमणी ऊर्फ प्रतापुरहीन माता के साथ हुआ था। गौना के रात्राी को ही माता रूखमणी को गुरू अमरदास जी के दिव्य रूपो के साथ सतपुरूष का दर्शन तथा जीवन उद्वेश्य का ज्ञान प्राप्त किया और गुरू अमरदास जी व माता रूखमणी साथ रहकर भी दामपत्य जीवन का निर्वाहन न कर ब्रम्हचर्य धर्म का पालन किया। जिसके कारण उनकी कोई संतान नही हुआ।

धर्मनिति से मानवता का बोध कराने की जिम्मेदारी - गुरू बाबा घासीदास जी अपनें दोनों पुत्र की समाज व मानव सेवा करने की कार्य क्षमता, ललक व हजारो भक्तो तथा संतजनो की आग्रह को देखते हुए। कार्यो का बटवारा करते हुए गुरू अमरदास जी को संत समाज को सही रास्ता (सतनाम के मार्ग) बतलाने धर्मनिति (मानव जीवन का बोध) व गुरू बालकदास जी को राजनिति (मानव समाज को संगठित कर सामुदायिक विकास व शासन में सहभागिता) पर चलनें कहा। जिसे सतनाम के पथ पर चलकर मानव अपने कर्तव्य का पालन करते हुए स्वतंत्र,समानता,शांति व सुखमय जीवन की प्राप्ति हो।

तपस्वी गुरू अमरदास जी के सतनाम संदेश - संतशिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी अपनें जेश्ठ पुत्र गुरू अमरदास जी को संत समाज को सही रास्ता (सतनाम के मार्ग) बतलाने धर्मनिति (मानव जीवन का बोध) बतलाने की जिम्मेदारी मिलते ही क्रमशः भण्डारपुरी,तेलासीपुरी,गिरौदपुरी सहित मघ्य प्रांत के अनेको स्थलो पर ज्ञान उपदेष से पथ, धर्म, दर्शन, प्रेम, चेतना,विचार,कर्म से सतनाम की व्याख्या कर मानव जीवन की सार्थकता को समझाया।

आध्यात्मिकता से चरित्र निर्माण का संदेश - तपस्वीगुरू अमरदास जी ने संतो को बतलाया कि आध्यात्मिकता का अर्थ उस चेतना पर विश्वास करना जो जीवधारियों को एक दुसरे से जोड़ते है, मानव सहित अन्य जीव जन्तु का जीवन प्रकृति के पदार्थो पर निर्भर है,हम प्रकृति चक्र के अनुरूप जीवन शैली से शरीरगत प्रखरता और चेतना क्षेत्र की पवित्रता बढ़ती है तथा जीवो के गुण,कर्म व स्वभाव में समता की लक्षण स्वमेव दिखाई देता है, आध्यत्कि जीवन से सुख के संवर्धन और दुख के निवारण की स्वथाविक आकाक्षा केवल निज शरीर,परिवार से कही अधिक व्यापक बनाती है।

आध्यात्म से आंतरिक जीवन में आत्मसुधार, आत्मनिर्माण, आत्मसंयम,इंद्रियो पर नियंत्रण,मर्यादा का पालन,सादगी,नम्रता,चरित्रनिर्माण,कर्तव्यबोध,धर्य,आकाक्षाओं और अभिरूचियों में परिवर्तन होता है,तथा बाहरी जीवन में सद्व्यवहार ,ईमानदारी,शालिनता,न्यायशीलता,परोपकारिता,जनसेवा व श्रमशिलता आदि आचरणों में परिवर्तन होता है। आध्यत्मिकता सतपुरूष पिता सतनाम की ज्ञान है सिके बोध से होने पर प्राणियो का विवेक जागृत हो जाता है और मानव के लिए अमरत्व का रास्ता मिल जाता है।

तपस्वीगुरू अमरदास जी के अनमोल वाणी।

1. अपनें सभी कार्य को समय पर कर लेना चाहिए।
2. धीरज ही विपत्ति का सबसे बड़ा मित्र है।
3. सदैव सतनाम को याद कर हमें सच बोलना चाहिए।
4. जन्म है तो मरण भी है,दुख है तो सुख भी है।
5. सत्य अहिंसा श्रेष्ठ मानव धर्म है।
6. गुरू व माता-पिता का सदैव सम्मान करे।
7. सभी धनो में विद्याधन श्रेष्ठ है।
8. शिष्टाचार व सतचरित्र गुणों से युक्त मनुष्य का समग्र सफलता प्राप्त करता है।
9. संयम से मनुष्य की आयु बढ़ जाति है।
10. सतकर्म ही मानव को श्रेष्ठ बनाती है।
11. काम,को्रध,लोभ व मोह का परित्याग कर मानव समनाम के पथ पर चलो।
12. मित्र और शत्रु,पुत्र,रिश्तेदारो किसी के प्रति आश्रित मत रहो।
13. सतनाम का जपन करते हुए शास्वत नियमों का यथाशक्ति पालन करो।
14. सत्य का अर्थ है मन,वचन व कर्म में कपट आचरण का अभाव।
15. सतनाम ही श्रेष्ठ मानवधर्म है,सत्य ही सतपुरूष व सतपुरूष ही सत्य है।
16. अपने आप पर विश्वास होना सबसे बड़ा सहायक होता है।
17. कोई भी जीवन असफल नही होता क्योकि जीवन मृत्यु,सुखदुख में सतपुरूष समान रूप से संसार के कण कण में विराजमान है।
18. मानव मरता है लेकिन उनके ज्ञान,दान व सद्कर्म उन्हे अमर बनाये रखता है।
19. सतत अभ्यास से जीवन में निश्चित सफलता मिलती है।
20. प्राणियो पर दया व कष्ट पिडि़त लोगो की सेवा करना मानव का कर्तवय है।
21. साधुता हमारा जीवन व सतनाम संस्कारों दिव्य मंजुशा है।

तेलासीपुरी में गुरू महिमा - तपस्वीगुरू अमरदास जी पिता की आज्ञा पाकर सत्य अहिंसा के पथ पर चलते हुए,अनेको चमत्कारिक व विशवसनीय कार्य किये उनकी महिमा का गुणगान जन जन करने लगें तथा तपस्वीगुरू की ख्यााति दुर दुर तक फैलती गई,तपस्वीगुरू अमरदास जी के तेलासी प्रवास पर धर्मसभा में बतलाया कि मनुष्य अपनी कर्म का फल स्यवं भोगना पढ़ता है अतः सतपुरूष सतनामपिता व प्रकृति को कभी नही भूलना चाहिए मनुष्य अपनी सुख दुख व लाभ हानि का कारण स्वयं है। सतनाम की ज्ञान रूपी अमृतवाणी,संदेश,विचार को सुन व जानकर पुरा वातावरण सतनाममय हो गया यही तपस्वी गुरू के द्वारा अनेको व्याधि व अंधविसवास से पिडि़त लोगो के जीवन में जागरूकता,मृत अवस्था में पहुच चूके बालक को जीनवदान,लोगो को सतपुरूष के महिमा का अहसास,मानव जीवन के उद्वेश्य आदि पर सतनाम प्रचारक गुरू अमरदास जी के चमत्कार से प्रभावित तेली,कुर्मी,यादव व अन्य समाज के पुरा तेलासी ग्राम के निवासी श्री गुरू के चरणो में समर्पित होकर गुरू अमरदास व सतनामधर्म की जयकारा कर सतनामधर्म स्वीकार कर सतनामी समाज में शामिल हो गये,आज भी इसके प्रमाण तेलासीपुरीधाम में सुरक्षित है।

चटवापुरी में गुरू समाधि - तपस्वीगुरू अमरदास जी ने चटुवा ग्राम के धर्मसभा में संतो के बीच पहुचकर सतनामधर्म के सत्य अहिंसा व प्रेम के उपदेश में जीवन के परिभाषा पर बताया कि संसार के प्रत्येक जीव जन्तु पेड़ पौधा इस धरा में प्रकृति से पालित पोषित होकर अपना जीवन जी रहे है लेकिन जीवन की परिभाषा क्या है,मेरे प्यारे संतजन आत्मा व शरीर का सयोग ही जीवन है। और व्यक्ति को अच्छा बनने के लिए अपने जीवन में सद्विचारों गुणों का समावेश कर संसार में,अपनें व्यक्तित्व का विशेष पहचान बना सकते है। संतो के आग्रह पर गुरू अमरदास जी अमरत्व का सहस्य को सिंद्व करने धर्म सभा में सतपुरूश के बतलाये नियमों के अनुसार संतो को तीन दिन के समाधि का संपूर्ण विधि-विधान समझाकर तीन दिन के पष्चात पुनः वापसी तक इंतजार करने कहकर संत तपस्वीगुरू अपनें ध्यानयोग शक्ति से अमरत्व (अमृत लाने)की प्राप्ति के लिए सतपुरूष के ध्यान में तीन दिन की अखण्ड समाधि में लीन हो गये। तपस्वीगुरू के द्वारा ध्यानयोग शक्ति से अमरत्व की प्राप्ति हेतु तीन दिवस की सतसमाधी की बात पुरे शिवनाथ तटक्षेत्र से दुर दुर तक फैल गई गुरूदर्शन हेतु लोगो का चटुवा गांव में भारी मेंला लग गया। संत समाज के द्वारा पुरे विधि विधान से पुजा आरती मंगल गीत का सिलसिला तीन दिनों तक सफलतपूर्वक समाधी स्थल पर चलता रहा। अंतिम दिवस सतनाम के विरोधियो बटोही के द्वारा छलपूर्वक सड़यंत्र कर गुरूसमाधि से भुतपे्रत हैवान बनकर वापिस आने की बात फैलाई गई तथा तपस्वीगुरू के शक्ति से अंजान सतनामी समाज के लोगों के द्वारा ही समाज विरोधियो के बातों/तर्को में फसकर संतजन तपस्वीगुरू बतलाये सतनाम नियम का पालन नही किया वरन् समाधिपट खोलकर गुरू के अवचेतन शरीर को जीवन की गति को स्थिर समझकर शिवनाथ नदी के किनारे दफन कर दिया गया,व कुछ देर के पश्चात सतपुरूष की कृपा से अमृत लेकर तपस्वीगुरू जब समाधीस्थल पर पहुच कर देखा तो उनके शरीर को सतंसमाज के द्वारा मृत समझकर (1824 को) दफन कर दिया है तब संतो को आकाशवाणी कर तपस्वीगुरू ने कहा कि मेरे संतों मै तुम सब के लिए अमृत लाने अमरलोक गया था और तुम लोग मेंरे लौटनें के पूर्व ही अपना विश्वास खो दिया, जो गुरू 11वर्षो तक अज्ञातवास में रहकर सकुशल सशरीर घर लौटा हो,उसका चार दिन भी इंतजार न कर सके। अपनी करनी पर पछतावा करते हुए सतनामी समाज के लोगो द्वारा सामूहिक माफी मागी गई व तपस्वीगुरू सें संतों पर सदैव कृपा बनाये रखनें का निवेदन किया, तब तपस्वीगुरू अमरदास जी संतो को माफकर आर्शिवाद देते हुए कहा कि वे सत में विश्वास करने वाले श्रधालुओं को पूशपूर्णिमा के मेला पर्व पर चटुवापुरीधाम में साक्षात दर्षन देगे इतना कह कर तपस्वीगुरू अर्तध्यान हो गया। उस महान आत्मा को प्रणाम करने के तत्पश्चात भण्डारपुरी शोक संदेश भेजा गया। शोक संदेश पाते ही गुरू परिवार के साथ सतनाम धर्म के सभी अनुयायी संतसमाज शोकमग्न हो गया। 

साहेब सतनाम

संजीव कुमार

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